बदलाओं से भी लगातार समृद्ध होता जा रहा नन्दा महोत्सव
पर्यावरण मित्रा, लोक संस्कृतियों के संरक्षण के साथ वेबसाइट के जरिए देश दुनिया से जुड़ा महोत्सव
नवीन जोशी, नैनीताल। सामान्यतया भूतकाल को समृद्ध परंपरा के लिए याद करने, वर्तमान को बुरा एवं भविश्य के प्रति चिन्तित होने का चलन है। लेकिन इस चलन को सरोवरनगरी का ऐतिहासिक नन्दा महोत्सव साल दर साल नई परंपराओं को आत्मसात करता हुआ लगातार समृद्ध होता और झुठलाता चला आ रहा है। पिछली शताब्दी और इधर तेजी से आ रहे सांस्कृतिक शून्यता की ओर जाते दौर में भी यह महोत्सव न केवल अपनी पहचान कायम रखने में सफल रहा है, वरन इसने सर्वधर्म संभाव की मिशाल भी पेश की है। पर्यावरण संरक्षण का सन्देश भी यह देता है, और उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊं व गढ़वाल अंचलों को भी एकाकार करता है। यहीं से प्रेरणा लेकर कुमाऊं के विभिन्न अंचलों में फैले मां नन्दा के इस महापर्व ने देश के साथ विदेश में भी अपनी पहचान स्थापित कर ली है। शायद इसी लिए यहां का महोत्सव जहां प्रदेश के अन्य नगरों के लिए प्रेरणादायी साबित हुआ है, वहीं आज स्वयं को `ईको फ्रेण्डली´, लोक संस्कृतियों के संरक्षण का वाहक बनता हुआ अन्तर्राश्ट्रीय पहचान बना चुका है।
सरोवरनगरी में नन्दा महोत्सव की शुरुआत नगर के संस्थापकों में शुमार मोती राम शाह ने 1903 में अल्मोड़ा से लाकर की थी। शुरुआत में यह आयोजन मन्दिर समिति द्वारा ही आयोजित होता था, 1926 से यह आयोजन नगर की सबसे पुरानी धार्मिक सामाजिक संस्था श्रीराम सेवक सभा को दे दिया गया, जो तभी से लगातार दो विश्व युद्धों के दौरान भी बिना रुके सफलता से और नए आयाम स्थापित करते हुए यह आयोजन कर रही है। कहा जाता है कि 1955 56 तक मूर्तियों का निर्माण चान्दी से होता था, बाद में स्थानीय कलाकारों ने मूर्तियों को सजीव रूप देकर व लगातार सुधार किया, जिसके परिणाम स्वरूप नैनीताल की नन्दा सुनन्दा की मूर्तियां, महाराश्ट्र के 'गणपति' जैसी ही जीवन्त व सुन्दर बनती हैं। खास बात यह भी कि मूर्तियों के निर्माण में पूरी तरह कदली वृक्ष के तने, पाती, कपड़ा, रुई व प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया जाता है। बीते तीन वर्षों से थर्मोकोल का सीमित प्रयोग भी बन्द कर दिया गया है। साथ ही कदली वृक्षों के बदले 21 फलदार वृक्ष रोपने की परंपरा वर्ष 1998 से शुरू की गई। वर्ष 2007 से तल्लीताल दर्शन घर पार्क से मां नन्दा के साथ नैनी सरोवर की आरती की एक नई परंपरा भी जुड़ी है, जो प्रकृति से मेले के जुड़ाव का एक और आयाम है। मेला आयोजक संस्था ने मेले में परंपरागत होने वाली बलि प्रथा को अपनी ओर से सीमित करने की अनुकरणीय पहल भी की है। वर्ष 2005 से मेले में फोल्डर स्वरूप से स्मारिका छपने लगी, जिसका आकार इस वर्ष 165 पृश्ठों तक फैल चुका है। इस वर्ष मेले की अपनी वेबसाइट के जरिऐ देश दुनिया तक सीधी पहुंच भी बन गई है। मेला स्थानीय लोक कला के विविध आयामों, लोक गीतों, नृत्यों, संगीत की समृद्ध परंपरा का संवाहक बनने के साथ संरक्षण व विकास में भी योगदान दे रहा है।