मैने तो पहाड़ी लोक को समझा ही नहीं था-गिरीश तिवारी 'गिर्दा'
(गिरिश तिवारी 'गिर्दा' से युवा कवि-पत्रकार जगमोहन 'आज़ाद' की बातचीत)
गिर्दा मूलतःकुमाउंनी तथा हिन्दी के कवि हैं,लेकिन उन्होंने लोक पंरपराओं के साथ चलते हुए लोक संस्कृति के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनायी।1945 में अलमोड़े के ग्राम ज्योली में जीवंती तथा हंसा दत्त तेवाड़ी के घर जन्मे गिर्दा ने अनेक गीतों को संगीत दिया है। उन्होंने 'अंधायुग','अधेर नगरी','थैंक्यू मिस्टर ग्लाड','मोहिल माटी',आदि नाटकों और गीत नाट्यों का निर्देशन भी किया,वे जनान्दोलनों में भी सक्रिय रहे।
गिर्दा अनेक नौकरियों के बाद गीत एंव नाटक प्रभाग नैनीताल में कार्यरत रहे,1996 में उन्होंने यहां से स्वेच्छावकाश लिया। आकाशवाणी स्टूडिओ व बैठकों से सड़कों तक उनकी अभिव्यक्ति अपनी उड़ान में कभी थकी और रोकी नहीं,वे जोड़ने वाले रचनाकार रहे है,सदा हम में बात करने वाले। उनमें काव्य घमण्ड मौजूद नहीं है। उनका लिखा गीत 'जागो-जागो हो म्यारा लाल',एक लंबा प्रतिरोध गीत बना था जिसने उत्तराखंण्ड आंदोलन के समय में एक नया माप-दंड स्थापित किया था।
गिरीश तिवारी 'गीर्दा' से मिलना और उनसे बातचीत करना किसी अनुभव से कम नहीं था मेरे लिए, 1 अगस्त 2006 को नैनीताल स्थित उनके घर कैलाखान में जब मै गिर्दा से मिलने गया था,तो मुझे एक पल के लिए भी यह नहीं लगा की मै गिर्दा से पहली बार मिल रहा हूं। उनके निवास पर पहुंचते ही गिर्दा ने मुझे अपने साथ अपनी थाली में ही करेले की सब्जी और रोटी खाने का निमंत्रण दिया। पहले तो मुझे यह देखकर थोड़ा झीझक महसूस हुई लेकिन जब गिर्दा ने बार-बार नाश्ता करने की आग्रह किया तो मैं उसे नाकार नहीं पाया,इसी बीच गिर्दा ने बाताया की वह मेरा सुबह से ही नाश्ते के लिए इंतजार कर रहे थे। उन्होंने खुद अपने हाथों से मेरे लिए चाय बनायी थी,लेकिन जब उन्हें मालूम हुआ की मै चाय नहीं पिता तो बोले चलो आज में दो गिलास चाय पी लूंगा...नाश्ते के बाद उन्होंने मुझे सबसे पहले झूसिया दमायी पर बनी फिल्म दिखायी और अपने कुछ लेख-कविताएं सुनायी इसी बीच उनसे बातचीत का यह दौर शुरू हुआ।1- गिर्दा किस तरह आप लोक-गीतों की लीक से जुड़े,विस्तार से बातएं?- जुडाव तो मेरा बचपन से ही था,गुरू लोग ऐसे रहे। मै तो पहाड़ी भाषा में कविता को बडे हलके में लेता था। इस बीच मुझे एक गुरू मिल गए चारू चंद पाण्डे जी,जिनका बहुत बड़ा योगदान है हमको बनाने में,मै गांव का लड़का था। एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया उन दिनों गढ़वाल-कुमाउ एक ही रिजनल होता था। उन्हीं दिनों श्रीनगर गढ़वाल में बच्चों की एक रैली चल रही थी। गुरू जी ने उस रैली मै मुझे बुलाया बोले 'तु गांव का हैं कोई गीत हैं तेरे पास', हां मैने छाती चौड़ी कर कहा,हां साहब है और मै खड़ा हुआ और तड़का से सुना दिया वो गीत,'मडवा भली जामिरों छो'....ये गीत सुनकर गुरू जी तड़का से बोल पड़े अरे ये तो 'सरोता व भुली आई,प्यारी नदोया' की धुन पर रचा गीत है। इसे तो मै भी जानता हूं। मै तो सोचता था तु गांव का है कुछ नया लाएगा गांव से कोई अच्छा सा गीत,यह बात मेरे दिल पर चोटकर गयी,हम हर शनीवार को गांव जाते थे...फिर मै गांव से एक गीत सिखकर आया 'पाराका बांझगाड़ा मै,ब्यूली रूड़ी कोंपी को झालरा,म्यरू मन लागीरोछो ब्यूली रूड़ी,त्यर कुर्ति कलरा', और गुरू जी को सुनाया फिर यही गीत मैने दूसरी बार श्रीनगर में गाया जिसमें मै प्रथम आया उस समय गुरू जी ने मुझे गले से लगा लिया कहा,मुझे नहीं मालूम था की तुम्हें ये बात इतनी बुरी लग जाएगी लेकिन इसके बाद मुझे पत्ता चला की लोक गीत क्या होते हैं...और इस तरह से मेरी यह यात्रा शुरू हो गयी।
2- तो पाण्डे जी की शोबत में आने के बाद आपको काफी कुछ जानने का मौका तो मिला ही होगा?- हां!यह तो मेरा सौभाग्य ही रहा की पांण्डे जी की शौबत में आने के बाद उन्होंने मुझे तमाम चीजे बतायी यहां तमाम गाथएं है,जिनसे कुमाउनी बोली बनी,जिसमें गुमानी से गौर्दा तक ऐसे कवि पैदा हुए जो भारतेंदु हरिशचंद्र से पहले खड़ी हिन्दी बोली का प्रयोग यहां कर चुके थे। यह जानने का मौका पांण्डे जी से ही मुझे मिला,फिर वह मुझे अपनी रचनाओं के नजदीक ले गए,तब मुझे समझ में आया की हमारे लोक में कितनी विशाल व्यजना है। मैने तो इस पहाड़ी लोक को समझा ही नहीं था। हम तो उर्दू-हिन्दी वाले थे। इसके बाद में विजेन्द्र लाल शाह,लैलिन पंत की शौबत में आया फिर आगे चलकर शमशेर और शेखर पाठक से मुलाकात हुई,इस बीच 66-67 के दौर में नक्सलबाद आदोलन के दौर में कई मित्रों से मेरी जान-पहचान हुई। यहां मुझे वैज्ञानिक और समाजिक दृष्टि मिली व्यंगात्मक अभिव्यक्ति दृष्टी के साथ-साथ जो वस्तुवादी दृष्टि मुझे मिली वो मुझे इन लोगो से मिली इसके बाद में देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले सांस्कृति कार्यक्रमों में गाने लाग और मेरी धारा बदल गयी जन आदोलनों की तरफ, सन् 77 में शेखर पाठक जी नैनीताल आए और फिर प्रत्यक्ष भागीदारी शुरू हो गयी लोक के क्षेत्र में,हमारा मूल उद्देश्य यह रहा की खाली कविता लिखने से कुछ हासिल होने वाला नहीं,जब तक की उसे आप जन से न जोड़े जन चेतना के विकास से न जोड़े,तभी तो उस समय ऐसी कविता लिखी गयी जिनकी गूंज आज भी सुनायी देती है। वह आज भी लोगों को प्रभावित करती है।
3- तो लोक-संस्कृति को किस तरह से आप समझ पाए?- जब मैने गोर्दा को सुना उन्होंने उस समय कहां था,'छीननी-सकनी कावे सरकार वंदेमातरम्' यह हिंदी गीत का अनुवाद था,तब समझ में आया की संस्कृति क्या होती है। संस्कृति सामाजिक उत्पाद हैं,पूरा सामाजिक चक्र चल रहा हैं,ऐतिहासिक चक्र चल रहा है और इस चक्र में जो पैदा होता है वही तो हमारी संस्कृति है। संस्कृति का मतलब खाली मंच पर गाना या कविता लिख देना,घघरा और पिछोड़ा पहने से संस्कृति नहीं बनती है। संस्कृति तो जीवन शैली है,वह तो सामाजिक उत्पाद है। जिन-जिन मुकामों से मनुष्य की विकास यात्रा गुजरती है,उन-उन मुकामों के अवशेष आज हमारी संस्कृति में मौजूद है,यही तो ऐतिहासिक उत्पाद है। जिन्हें इतिहास ने जन्म दिया है। जब मैने संस्कृति को इसरूप में देखा तो छोलिया का अर्थ भी बदल गया पूरे साहित्य का अर्थ बदल गया,तब मुझे समझ में आया की यह तो सामाजिक उत्पाद हैं फिर मुझे कबीर समझ में आया तुलसी समझ में आने लगा,तब मुझे लगा यह तो एक तरह का आंदोलन है,फिर वीरगाथाएं क्या होती हैं उनका हमारे साथ क्या रिश्ता है,वो समाज को क्या देती है,समाज उनसे क्या लेता है,वर्तमान समाज वीरगाथा गायक को क्या देता है। यह सब मैने संस्कृति से जुड़कर ही समझा है।
4- गिर्दा, आप पहाड़ के लोक के एक मुख्य वाहक हैं...लोक संस्कृति के लिए आपने बहुत कुछ किया है...कई गीत लिखे, कविताएं रचीं...आपकी रचनाएं पहाड़ के लोगों को जगाती हैं, राह दिखाती हैं...आपने कई दशकों के लेखकों, कवियों, गीतकारों और गायकों के साथ काम किया है...लेकिन आपका कार्य सबसे अलग रहा है...आखिर कैसे?- अगर मेरा कार्य अलग लगता है तो इसका मूल्यांकन तो आप ही लोग करेंगें। मै तो अपने तईं समय और समाज को समझने की कोशिश भर करता रहा,समाज के मूल अंतर्विरोध पकड़ने और उस हिसाब से जनपक्षीय आंदोलनों को रचनात्मक अभिव्यक्ति देने का प्रयास मात्र किया मैने इमानदारी से,फिर विद्या चाहे कोई भी हो।
5-कुछ ऐसा, जो करने की चाहत हो..लेकिन अभी तक कर नहीं पाए?- बकौल 'गालिब' " हजारों ख्वाहिशों ऐसी कि हर ख्वाहिश पै दम निलके"सो मेरे भाई किसी भी आदमी की हर चाहत तो कभी पूरी हो नहीं सकती,और मै भी एक सामान्य आदमी हूं। मगर वास्तविकता यह है कि जब मानव-विकास यात्रा का मर्म समझ में आ जायें तो फिर व्यक्तिगत चाहतों की कामी-नाकामी का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता।
6-पहाड़ की जनता ने या तो आपको मंच पर सुना है या फिर रेडियो पर...आपने लोगों के बीच जाकर रचनाएं रचीं और सुनाई हैं...लेकिन जमाना सीडी और कैसेटों का है...आपने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया?- क्यों कि 'सीडी' या 'कैसिट' तो बाजार की मांग पर भी चलते हैं ना,और बाजार में मुझे किसी ने पूछा ही नहीं कभी,दरसल बाजार के लिए जो योग्ता जो गुण चाहिए वो मुझ में हैं ही नहीं। हां,अव्यवसायिक स्तर पर प्रो.शेखर पाठक और डॉ.उमा भट्ट के रिहाइशी कमरे को स्टूडियो बनाकर,पिथौरागढ़ के तकनीकी रूझान वाले युक्त उप्रेती की तकनीकी मशक्कत से तीन कैसिटों का एक सैट 'जागर' के माध्यम से बहुत पहले निकाला था। टैकनीकली यह कैसेट सैट कैसा रहा होगा आप समझ सकते हैं। लेकिन कई पत्र-पत्रिकाओं में उन कैसिटों की खूब समीक्षा छपी थी। जन आंदोलनों में भी बहुत प्रयोग हुआ उनका पूरे देश के स्तर पर,क्योंकि उनमें कुमाउंनी,गढ़वाली.उर्दू,हिन्दी सभी बोली-भाषाओं की रचनाएं शामिल थीं,आज भी कभी-कभार सुनाई देते हैं आन्दोलनों में...।
7-आप पुरानी पीढ़ी के कलाकारों समेत नवांकुरों तक के साथ आत्मीयता से अभी भी अनवरत कार्य कर रहे हैं...नई पीढ़ी के काम को कैसा मानते हैं और उसे सीख देंगे आप?- किसी भी सचेत संस्कृतिकर्मी को सभी 'वय' के लोगों के साथ काम करना ही चाहिए,दरअसल नये-पुराने वाली बात ज्यादा माने नहीं रखती बल्कि काम करने का मूल उद्देश्य महत्वपूर्ण होता हैं और नये लोगों के साथ काम करने में तो और अच्छा लगता है। कई नई-नई चीजें मिलती हैं। नये आयाम खुलते हैं। ख़ास तौर पर रंगमंच संदर्भ में कोशिश करता हूं कि बच्चों के बीच अधिक से अधिक भागीदारी हो सके। नये लोगों से इतना ही कहना चाहता हूं कि बाजारवाद के इस खतरनाक दौर को विश्लेषित करते हुए सांस्कृतिक कार्य का महत्व समझें और सामाजिक-ऐतिहासिक-वैज्ञानिक चेतना के साथ रचना कार्य करें,वरना बाजारवाद की डिमाण्ड के चक्कर में मानवीय गरिमा,मानवीय मूल्य,मानवीय संवेदनायें ही रिमाण्ड में न चली जायें,नीलाम न हो जायें।
यह ध्यान रहे कि वर्तमान समय तकनीकी विकास के कारण सुंदर और सोद्देश्य काम करने के लिए भी सर्वाधिक उपयोगी साबित हो सकता है। यही वो वक्त है जब फूहड़,निकृष्ट,बाजारू काम के बरअक्स अर्थवान,संजीदा और गंभीर काम भी अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में सर्वाधिक सक्रियता के साथ किया जाना चाहिए और खुशी की बात है कुछ लोग कर भी रहे हैं।
8-उत्तराखंड आंदोलन के दौरान आपका एक गीत जन-जन तक पहुंचा...जैंता एक दिन त आलो वो दिन यू दुनीं मैं...आपको क्या लगता है कि क्या वो दिन आ गया?- जैंता एक दिन त आलो ऊ दिन यो दुनी मैं,गीत तो मनुष्य के मनुष्य होने की यात्रा का गीत है। मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम् समाज भविष्य में निर्मित होगा उसकी प्रेरणा का गीत है यह,उसका खाका भर है। इसमें अभी और कई रंग भरे जाने हैं मनुष्य की विकास यात्रा के...इसलिए वह दिन इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा,इस वक्त तो घोर संकटग्रस्त-संक्रमणकाल से गुजर रहे है नां हम सब,लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूर साकार होगी इसका विश्वास हैं और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिएं...बस..।